एक ब्लू लाईन बस ने,
दूसरी ब्लू लाईन बस से कहा
"बहन सेंच्युरी कब हो गयी
पता ही नहीं चला !
दूसरी ब्लू लाईन बस ने भी
लिया इस बात को खींच,
बोली "पचास तो निपटा दिए
अगस्त से अक्टूबर के बीच"
"हमने तो अपने रंग का
महत्व ही खो दिया है,
और मारने वाले से
बचाने वाला बड़ा होता है
इससे गलत साबित किया है |
क्योंकि जनता को बचाने की
जिम्मेवारी तो होती है सरकार की,
और मुख्यमंत्री होता है
सरकार का मुखिया,
लोगों को ब्लू लाईन बस से
कैसे बचाया जाये....
ये तो उसे भी नहीं पता !
हम सब में इस बात का बड़ा ही गुरुर है,
कि पूरा का पूरा मंत्रिमंडल हमारे सामने मजबूर है...
तब दूसरी बोली,
कि आम जनता को
मारने का दोष सिर्फ
हमे क्यों दिया जाता है?
हम अपनी मर्ज़ी से किसी को नहीं मारती,
जिसकी लिखी होती है,
वही तो हमारे नीचे आ जाता है !
और अगर किसी कि लिखी भी हो...
तथा वो सड़क पर आने से डरता है,
तो उसे कुचलने के लिए...
मजबूरन हमें फुटपाथ पर चढ़ना पड़ता है !
इस तरह दोनों बसें अपनी अपनी
कामयाबी के किस्से सुना रही थी,
मन ही मन मुस्कुरा रही थी
तब एक बोली,
"क्यों न अगला कार्यक्रम
योजनाबद्ध तरीके से किया जाये,
हम ब्लू लाईन बसों के लिए
एक चैम्पियनशिप का आयोजन किया जाये,
दैनिक चैम्पियन, साप्ताहिक चैम्पियन, मासिक चैम्पियन
और वार्षिक चैम्पियन को तो विशेष पुरस्कार दिया जाये...
जो बस किसी को जान से न मार पाई हो,
सिर्फ हाथ पैर तोड़ कर आयी हो,
उससे प्रोत्साहन पुरस्कार दिया जाये...
ताकि उसका होसला बढ़े
तथा ज्यादा बेहतर करने की प्रेरणा मिले,
इसमें एक विशेष कार्य किया जायेगा
बूढी और अनुभवी बसों को,
लाईफ़ टाईम अचीवमेंट पुरस्कार दिया जायेगा !
दोनों बसों कि बात सुन कर,
इस कवि ने कहा
"बहनों, तुम 'बस' हो बस.. 'बस' ही रहो
और दिल्ली की जनता को,
उसके हाल पर छोड़ दो
इनके लिए तुम यमराज ना बनो" !
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